“अहंकार जीता” – “लोकशाही हारी”
निगम आयुक्त तुकाराम मुंडे और जनप्रतिनिधियों के बीच चल रहे संघर्ष के उपरांत नागपुर महानगर पालिका के इतिहास में पहली बार टाउन हॉल के बाहर किसी सभागृह में पांच दिनों तक सदन चली.लेकिन चाहे सत्तापक्ष हो या फिर विपक्ष हो दोनों ने निगम आयुक्त के हटधर्मी और जनप्रतिनिधियों को नीचा दिखाने की मानसिकता से परेशान नगरसेवकों ने 5 दिन दिनों तक चली सदन में मुख्य मुद्दे को बगल दे दिये. यह बात सही है की नागपुर महानगरपालिका के इतिहास में पहली बार कोई निगम आयुक्त सदन की कार्रवाई को आधे में छोड़ कर सभा त्याग कर चल दिया और बाद में पत्र परिषद लेकर अपने इस व्यवहार का समर्थन भी किया,समर्थन में कुछ दलीलें भी दी! यहां तक कह दिया कि जिस सदन में उनका अपमान हो उस सदन में भी वे कभी नहीं जाएंगे.
यह अलग बात है कि दूसरे दिन वे सदन में जरूर उपस्थित हुए, यह भी बात सही है कि नागपुर महानगर पालिका के इतिहास में कई ऐसी घटनाएं घट रही है जो इसके पहले कभी नहीं घटी! चाहे शहर के प्रथम नागरिक महापौर द्वारा निगम आयुक्त पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज करना हो, या फिर जनप्रतिनिधियों द्वारा किसी नौकरशाह के समर्थन में सदन के बाहर नारे लगाना हो और फिर मोर्चे निकालकर नौकरशाह के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्द करना हो, चाहे निगम आयुक्त द्वारा जनप्रतिनिधियों को ठेंगा दिखाते हुए एक के बाद एक निर्णयों को लेना और उनकी अमलबजावणी करना हो. नागपुर के इतिहास में यह भी पहली बार हुआ जब कोई निगम आयुक्त की वाहवाही की जानेवाली वीडियो सोशल मीडिया में चली हो, यह भी पहली बार हुआ कि जब शहर के नागरिक निगमायुक्त के समर्थन में सोशल मीडिया के द्वारा अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की हो! यह भी पहली बार हुआ कि शहर के नागरिक अलग-अलग नौकरशाहों के बीच में बटते हुए देखे गए.खेमे की दीवार चाहे पुलिस महकमा के मुखिया बनाम निगम प्रशासन के मुखिया हो, चाहे वह दीवार हिंदी भाषी अधिकारी बनाम मराठी भाषी अधिकारी क्यों ना हो.
पूरे शहर में एक अधिकारी मुंडे की चर्चा शहरवासी कर रहे हैं मानो अब शहर में कोई मुद्दा ही नहीं बचा हो. इतने दिनों में लोगों के बीच जिस प्रकार की चर्चाऐं चली, चलाई गई मानो की पुरे शहर में एक मात्र अधिकारी है जो ईमानदार, काबिल, कर्तव्यदक्ष, गतिशील, और ना जाने क्या क्या! बाकी सब भ्रष्ट, बेईमान, नकारे लोग. इस पूरे माहौल के दरम्यान नागपुर महानगरपालिका की आम सभा करने का निश्चय किया गया. सबकी नज़र महानगर पालिका के सदन पर टिकी हुई थी और सबकी उम्मीद थी की सदन में बुनियादी बात पर चर्चा होगी बहस होगी! नागरिकों में जो गैरसमज व्याप्त थी उसे दूर करने में मदत होगी और लोग भी बातों को समाज पाएंगे की आखिर मामला क्या है लेकिंन यह बहुत ही दुःख की बात है की 5 दिन चले सदन की बहस में न सत्ता पक्ष ने बुनियादी मुद्दा उठाया और ना ही विपक्ष ने.
यह सारी परिस्थितियां ऐसे वक्त आकार में आयी जब शहर के अंदर पिछले 4 महीनो से लॉकडाउन लगा हुआ है. कोरोना वायरस के प्रदुर्भाव को रोकने के इरादे से शहर के अंदर एक प्रकार से नाकाबंदी ही की गई हो और इस कोरोना महामारी से जूझने वाले जिनको हम फ्रंटलाइन वर्कर्स कहते हैं चाहे उसमें डॉक्टर, नर्सेज, पैरामेडिकल स्टाफ हो या घर घर जाकर सर्वेक्षण करने वाले शिक्षक एवं आशा वर्कर्स हो, सफाई कर्मी हो या फिर शहरी प्राथमिक आरोग्य केंद्र में काम करने वाले डॉक्टर नर्स और अन्य कर्मचारी हो इस पूरे चर्चा में यह तमाम फ्रंटलाइन वर्कर्स कहां गुम हो गए इसका अंदाजा ही नहीं लगा. फ्रंटलाइन वर्कर्स जो अपनी जान को असुरक्षित कर लोगों के घर घर जा रहे हैं, यंहा तक की कन्टेनमेंट झोन के अंदर के घरों में जा रहे थे, और दूसरी तरफ सरकारी दवाखानो में डॉक्टर्स ऑफ़ नर्सेज कोरोना से पीड़ित लोगों का इलाज़ कर रहे थे, जिनकी कोई चर्चा नहीं की गई.
जनता के नजरों में जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार लेकिन 5 दिन के इस सदन में मा. आयुक्त एक भी जनप्रतिनिधि पर भ्रष्टाचार का आरोप कर नही पाए और ना ही कोई भ्रष्टाचार उन्होंने उजागर किया फिर भी जनता के नजरों में जन प्रतिनिधि भ्रष्टाचारी दूसरी ओर जनता की नजरों में आयुक्त ईमानदार लेकिन पदाधिकारियों ने भ्रष्टाचार के आरोप करते हुए आयुक्त के खिलाफ पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई,अब सवाल इस बात का है कि इस 5 दिन के मंथन से निकला क्या? अगर कोई शिकायत ही नहीं थी किसी की किसी के खिलाफ तो फिर इतना तनाव किस बात का था?
5 दिनों के मंथन में जो मुख्य मुद्दा था उसको बहुत ही शातिर तरीके से पक्ष और विपक्ष दोनों ने बगल दे दिया! मुद्दा यह नही था कि महानगरपालिका का आर्थिक संकट गहरा गया है. अतः विकास के काम नहीं हो रहे हैं और आयुक्त जानबूझकर विकास के काम नहीं कर रहे हैं. मुद्दा यह भी नहीं था कि पदाधिकारी आयुक्त का सम्मान नहीं करना चाहते हैं. असली मुद्दा जो चर्चा में आना चाहिए था कि पिछले 4 महीने में जिस प्रकार का वातावरण महानगर पालिका और शहर में बना है और एक कुंठा निर्माण की गई है उसकी जड़ में जाने की! बुनियादी मुद्दा यह था कि क्या मा. आयुक्त को लोकशाही मंजूर है? क्या स्थानीय संस्थाओं को जनवादी तरीके से चलाने में यकीन रखते हैं? अगर यह मुद्दा उठाया जाता और इस मुद्दे के इर्द-गिर्द बहस होती तो शायद यह जो तनाव और उत्कंठा निर्माण हुई उसमें से निकलने का कोई रास्ता मिल पाता.
क्या 5 दिन के सदन में यह सवाल उठे की कोरोना का मुकाबला करते समय समय-समय पर केंद्र की स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी किए गए निर्देशों का और साथ ही इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) द्वारा जारी किए गए निर्देशों का पालन मा. आयुक्त ने किया ? या नही. अगर कोई उल्लंघन मा. आयुक्त ने की है तो उसकी चर्चा क्यों नहीं हुई? क्या जनप्रतिनिधि भूल गए की फ्रंटलाइन वर्कर्सों की टेस्टिंग को लेकर मुंबई उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ ने आयुक्त को फटकार लगाई थी, क्योंकि जनप्रतिनिधियों को इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं है.जब जनप्रतिनिधियों को ही इन सारी बातों से कुछ लेना देना ही हां हो तो आयुक्त उन तमाम निर्देशों का पालन करें ना करें, उल्लंघन करें ये चर्चे के मुद्दे बन ही नहीं सकते.
अचानक ऐसा क्या हुआ कि जो जनता जिन जनप्रतिनिधियों को चुनकर देती है वही जनता अचानक इस बात का अविष्कार कैसी क्या लगा लेती है कि जनप्रतिनिधि सारे भ्रष्टाचार है और एक अधिकारी जिन्हें व्यक्तिगत तौर पर जनता नहीं जानती है जिनके कामों का भी अंदाजा जनता को नहीं होता है. बस प्रसार माध्यमों के माध्यम से जनता किसी अधिकारी की प्रतिमा को अपने अवचेतन में बसा लेती हैं! और फिर विशिष्ट अधिकारियों की जय जयकार करने लगती है. अगर एक सवाल नागरिकों के सामने खड़ा किया जाय की उन्हें मा. मुंडे चाहिए या फिर नागपुर महानगरपालिका नाम की स्थानिक स्वराज्य संस्था चाहिए, शत-प्रतिशत लोग यही जवाब देंगे की हमें मुंडे चाहिए! और यही जवाब लोगों की ना समझी या लोगों का पाखंडी मानसिकता को उजागर करती है. यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि जो संस्था लोगों की है लोग ही उसे अपनाने को तैयार नही है जो संस्था लोगों को सेवा प्रधान करती है उसी संस्था को स्वीकार करने को तैयार नही.
विपरीत परिस्थिति में जो डॉक्टर्स, नर्सेस, पैरामेडिकल स्टाफ, आशा वर्कर, शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी कोरोना महामारी में अपनी जिंदगी को धोखे में डालकर असुरक्षित रह कर भी काम कर रहे हैं उनकी सुरक्षा के प्रति क्या नागरिक समाज ने पिछले 4 महीनों में कभी कोई सवाल खड़ा किया है ? क्या नागरिक समाज ने यह जानने की कभी कोई कोशिश कि है कि जो नौकरशाह फ्रंटलाइन वर्कर नहीं है, एक सुरक्षित वातावरण में काम करता हैं वह अगर अच्छे गुणवत्ता का मास्क पहनता हो तो क्या वही नौकरशाह जो घर घर जा रहे हैं जो सीधा कोरोना महामारी के प्रभाव के के संपर्क में आ रहे हैं उनको उसी दर्जे का मास्क उपलब्ध कराया है ? क्या उन्होंने सेनिटाइज़र या साबुन उपलब्ध कराया है ? आशा वर्कर को महीना महज हजार से पंधरा सो रुपए मानधन मिलता है, लॉकडाउन के चलते जिनके घरों के पुरुष भी काम से वंचित रहे हैं, पंधरा सौ रूपए में वह परिवार कैसे जिया होगा लेकिन वही नागरिक समाज एक नौकरशाह को महा मंडित करने में सुबह से शाम तक अपना पूरी ऊर्जा खर्च खर्च करता है. नागरिकों का यह दोहरा चरित्र भी खुल कर सामने आया.
हम सब जानते हैं कि मुंडे निगम आयुक्त का पदभार ग्रहण करने के बाद शिष्टाचार के चलते तुरंत चाहिए था कि वे शहर के प्रथम नागरिक मा. महापौर के कार्यालय जाकर मुलाकात करते लेकिन करीब पंद्रह दिनों तक वे महापौर मिले तक नही. क्या यह बर्ताव सही था? लोकशाही के मूल्यों को अमान्य करने वाला व्यवहार था, आयुक्त के इस व्यवहार ने इस बात को इंगित कर दिया था कि वे किसी की चिंता नहीं करते. नागपुर की भाषा में वे कसी को नही गिनते। क्या लोकशाही में और एक स्थानीय स्वराज संस्था में किसी नौकरशाह का इस प्रकार का संदेश लोकशाही पूरक है? कदापि नही है.
इंतजार इस बात का था की जनप्रतिनिधि सदन मुंडे से बहुत ही मौलिक सवाल करेंगे और वह सवाल यह था क्या मुंडे लोकशाही मानते या नहीं क्या उनका विश्वास लोकशाही में है ? अगर मान्य है तो फिर क्या उनका व्यवहार उसके अनुरूप है ? लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसकी वजह बहुत ही स्पष्ट है, ना मुंडे को लोकशाही मंजूर है और ना ही जनप्रतिनिधियों को! चर्चा इस पर हुई कि स्मार्ट सिटी कंपनी के डायरेक्टर कौन है कौन नहीं है. कितना अनियमितताएं मुंडे ने की,बुनियादी सवाल तो यह था कि क्या इस प्रकार की कंपनी का निर्माण करना संविधान के अनुरूप है ? इस प्रकार की कंपनी संविधान की 74वी संशोधन के अनुरूप है ? क्या इस पर सवाल नहीं होने चाहिए थे कि कंपनी का कार्यक्षेत्र जिन इलाकों में होगा क्या उस कार्यक्षेत्र में जनप्रतिनिधियों के कोई अधिकार होंगे ? इन सब का उत्तर नहीं में मिला होता। जनप्रतिनिधियों को इन सब सवालों से कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि उन्हें लोकशाही, संविधान इससे कोई सरोकार नहीं है, जब तक व्यक्तिगत हितों पर आंच ना आ जाए तब तक कुछ नहीं बोलना और यही वास्तविकता है. जब व्यक्तिगत हितों पर आ जाती है तो आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगा देते हैं.
क्या कोई नौकरशाह अपने पद पर रहते हुए अपने व्यक्तिगत जीवन एवं व्यक्तिमत्व को लेकर वीडियो बना सकता है ? क्या ऐसे वीडियो सोशल मीडिया में चला सकता है ? यह बात अलग है कि मुंडे यह कह सकते हैं कि वह वीडियो उन्होंने स्वंय नहीं बनाया लेकिन फिर भी अगर उनके जीवन पर वीडियो बनी है तो उन्होंने ही वीडियो बनाने की इजाजत दी होगी ना. और जब उनके संज्ञान में आ गया कि उनके व्यक्तिमत्व की प्रशंसा करते हुए कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर चल रहे हैं तो उन्होंने अपने प्रशंसकों को ऐसा करने क्यों नहीं रोका और ना ही आह्वान किया कि वह इस प्रकार के कोई वीडियो को डिलीट करें नहीं करने पर उनके खिलाफ फौजदारी गुना दर्ज किया जाएगा। मुंडे ऐसा कुछ नहीं किया। मतलब मुंडे कि वीडियो और उसका फेसबुक पर चलाने को लेकर पूरा समर्थन था.
कही मुंडे ने इस प्रकार के वीडियो चलवाकर सेवा शर्तो के नियमो का उल्लंघन तो नहीं किया! अगर मा. मुंडे के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज की जा सकती है तो फिर क्या वीडियो की हरकत पर तो मुख्य सचिव महाराष्ट्र सरकार को शिकायत करने वाला प्रस्ताव भी सदन में पारित किया जा सकता था क्यूंकि यह ज्यादा गंभीर मुद्दा था! लेकिन सत्ता पक्ष ने ऐसा नहीं किया! मानो या ना मानो शहर का वातावरण ख़राब हुआ है. लोग नौकरशाहों बीच बटें हैं.कोन है इसके लिए जिम्मेदार। ऐसी क्या बात हो गई की पूरा शहर एक नौकरशाह को लेकर चर्चा कर रह है. नौकरशाह का ईंमानदार होना कोई मेहरबानी तो नहीं है ना, सरकारी अधिकारी और कर्मचारी ईमानदार होने ही चाहिए। जनता पगार बईमान होने के लिए तो नहीं देती ना जो लोग जितने बईमान और भ्रष्ट वो उतना ही ईमानदारी की चर्चा करते हैं.
5 दिनों के मंथन के बाद 2 डॉक्टरों को सेवा से निलंबित करने का फैसला किया गया. मतलब खोदा पहाड़ निकला चूहा। जिन आरोपों के आधार पर दोनों डॉक्टरों को निलंबित किया गया उसके लिए तो सदन के प्रस्ताव की कोई जरूरत ही नहीं थी. शुध्द प्रशाषकीय मामला था लेकिन सत्तापक्ष को कुछ तो साबित करना था की उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है. चाहे कुछ भी हो लोकशाही में लोग नौकरशाह की चर्चा करे ये राजकीय व्यवस्था और राजनीतिज्ञों की हार है. ५ दिन के सदन में अंततः “लोकशाही की हार हुई है और अहंकार की जीत हुई है”!
जम्मू आनंद
(राजकीय विश्लेषक)
“अहंकार जीता” – “लोकशाही हारी”
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